गुरुवार, 11 अगस्त 2011

सावन - एक गरीब का

ग्रीष्म की धूप पर ,
जब बादलों ने चादर बिछायी,
तो उसने सुना,
सावन गया,
सूर्य की तपिश को
ढकने की कोसिस को,
उसने सावन सुना.....

बादलों की यूं मनमानी,
मानो की सूर्य का अपहरण ,
धुँधलाये धुँधलाये से श्याह दिन,
बेवक्त बारिश का आगमन
तो उसने सुना,
सावन गया,

मिट्टी की एक सोंधी सी खुशबू,
मिटा रही थी तन के घाव,
खींच रही थी बचपन में,
मिटा रही थी मन के घाव ,
तो उसने सुना,
सावन गया


बचपन का वो खेलना,
पहली बारिश में भीगना,
पेड़ों पर वो पुराने झूले,
वो सखाओं संग खेले कूदे,

यादें याद पुरानी सब वो,
अंतरमन में जो उठ रही थी,
फिर भी जाने क्यों ये बूंदे,
झूठी झूठी आज लग थी,

याद उसे अब वो था सब कुछ,
जिनसे जलता था एक चूल्हा,
सावन की ये बूंदे भारी ,
भर चुकी थी गली-मोहोल्ला,

सावन की ये कोमल बूंदे,
झडती थी जब उसकी छत से,
परेशानियां और भी हरी होने होने लगती,
जैसे घास हरी हो जाती है जंगल की ,

घर के भीतर एक सरोवर,
मन के सारे भ्रम डुबाये,
घर के भीतरका वो चूल्हा,
इस पानी में कैसे जल पाए,

घर के बाहर की ये दुनिया ,
सावन के बूंदों सी होती हैं,
कौन सी तेरी, कौन सी मेरी
कौन सी किस किस की होती हैं,

जल रहा था मन उसका अब,
सावन की इन बूंदों से,
करने को कुछ काम मिलता,
चूल्हा जलाता बूंदों से,

सावन के इस मौसम से,
चेहरा वो बादलों से,
सना पड़ा था ,
की शायद जल्द ही,
सावन जायेगा,
और फिर से  ,
जिंदगी सूखी सूखी सी,
लेकिन बेहतर चल पड़ेगी




अंशुमन


0 टिप्पणियाँ:

एक टिप्पणी भेजें