बुधवार, 28 दिसंबर 2011

अस्तित्व


संभावनाओ के प्रांगण  में,
नक्षत्रों की गोद में, 
नियति,
खेलती हो जब धूप छांव में,
अस्तित्व बनते मिटते रहते है,

संवेदनाएं,
प्रतिबिम्ब बन जाएँ जब,
मौलिकता आधार बने,
तब, कर्मो के इस भव सागर में,
अस्तित्व बनते मिटते रहते है,

संभावनाओं को कृतज्ञ  बना  कर,
जब भरत भाग्य से आखेट करे,
सिंह आरूढ हो, विजय नाद लहराए,
अस्तित्व बनते मिटते रहते है,

चिंताओं से परे अक्षांश पर,
अनुभूतियाँ जहाँ परखे स्वार्थ को,
रक्त वर्णित परशु, युद्ध करे जब,
अस्तित्व बनते मिटते रहते है,

गुरु में सूरत मिले ब्रह्म की ,
शिष्य एकलव्य सा हो जहाँ,
प्रेम-कर्म से लुट बेठे कोई पन्ना
अस्तित्व बनते मिटते रहते है,

रविवार, 13 नवंबर 2011

हिसाब हो कोई,


दूरियों ने माँगा है, बीते वक्त का हिसाब हो कोई,
ये मुनकिन तो नहीं, हर एक सवाल का जवाब हो कोई,

बहते हुए अश्कों में पानी नहीं एक पोथी है,
अनछुई अनदिखी सवालों की कहानी है,
जो जुबान दे दे कोई, तो क़यामत होगी,
तुम ही सोचो , चुप रहता क्यों, जवाब हो कोई,

हादसों का शहर में आना जाना आम है,
यूँ सवालात बनके निकल जाना आम है,

जवाबों के लिये नहीं मिलते ढाई अक्षर

तुम सोच बैठे कि बात नहीं नकाब हो कोई,


ये भी आसान नहीं ,फासलों से फासले बनाकर चलना
हर किसी चोट पर मलहम लगा कर चलना

जख्म दिल का हो तो ,सौ दवा बेकार हुयी ,
जैसे
खाक में मस्त फ़कीर *
इस्तेजाब हो कोई,

**खुद ही जल रहा है ,जलाने निकला था जो शहर को कल,
ऐसी नफरतों को मिटोने के लिये बवाल हो कोई,
शर्म-ओ-हया की छाँव से दूर रहेगा कब तलक कोई,
अस्मिता मांगती है अब तो हिसाब हो कोई

* इस्तेजाब (Istejaab )
  astonishment, wonder

बुधवार, 14 सितंबर 2011

साँस, रिश्ते, एहसास

साँसे
भले ही तोड़ सकती है,
रिश्तों को
कांच के मानिंद,
मगर ,
वक्त लगता है,
सदियों को ,
एहसासों को मिटाने में

मंगलवार, 13 सितंबर 2011

खटास


बीते कल में,
कोई समझा रहा था मुझे,
सिर्फ पुराने होने से ,
मजबूती नहीं आ जाती,
कई बार,
खटास है आ जाती ,
जब खमीर है जम जाती ,
रिश्तों की तह के ऊपर

“ जिंदगी ”

मै और तुम,
मै और तुम , में उलझे रहे,
हम हो न सके,
और जिंदगी बीत गयी  ,
अजनबियों की तरह  

सोमवार, 5 सितंबर 2011

तेरी मेरी प्रीत कान्हा


तेरी मेरी प्रीत कान्हा,
तेरा मेरा ये बंधन,
जलती है गोपियाँ मुझसे,
जलता है ये वृन्दावन,

तुम्ही कहो कान्हा ,
कैसे मै इनको समझा
ऊं ,
तू तो है सबका कान्हा,
ये मै किस को बतलाऊं,

मैया यशोदा भी अब, जलने लगी है,
कहती है मुझको बावली , लड़ने लगी है,
कैसे मिलू तुमसे अब मै कान्हा,
तेरे मेरे मिलने की मुश्किलें बड़ी हैं

तुम्ही सुझाओ कान्हा,
कैसे मिलूं मै तुमसे ,
कैसे सुनू मै बंसी की धुन,
कैसे करूँ मै प्राणों को वश में,

कान्हा आज मन ये बहुत ही उदास है,
तेरी मूरत की कान्हा, नयनो को प्यास है,
कान्हा अब भी जाओ, 
राधिका ये पुकारे
तेरी याद मे कान्हा, 
घड़ी घड़ी द्वार निहारे 

तेरे चरणों में कान्हा मेरा ये जीवन
आज मेरे तन मन का तुझको समर्पण
अब चुभने लगी हैं ये गलियाँ और ये वन 
जलती है गोपियाँ मुझसे,
जलता है ये वृन्दावन,

तेरी मेरी प्रीत कान्हा,
तेरा मेरा ये बंधन,
जलती है गोपियाँ मुझसे,
जलता है ये वृन्दावन,

रविवार, 4 सितंबर 2011

मील के पत्थर -- भाग -१

तुमने देखा तो होगा,
मील के पत्थरों को,
दूरियों को बांटते हुए,
चुपचाप से पड़े रहते है,
रास्तों पर ,
हर मौसम में,

अपनी जगह भी टिके रहना,
परियों के जादू से कम नहीं,
जबकि हर कोई,
मिटा देना चाहता है,
भेद-भावों को,
मिटा कर सख्सियत ,
और मिटाकर उसको,
कहना अपना,
इंसानी फितरत से कम नहीं,

मगर कुछ ही ,
बन पाते है,
मील के पत्थर,
समय की सड़कों पर ,
जो बाँट देते है,
जीवन को,
यादों से,
और समय की पगडंडियों पर.
मुड़कर देखने से ,
यादों की कहकशा का,
मील के पत्थर बन जाना,
परियों की कहानी सा है,
जैसी बचपन में सुनी थी,
दादी या नानी से,
और आज वो ,
मील के एक पत्थर सी ,
जीवन के सफर में,
जो अपने साथ लिए,
यादों के झुरमुट,
आज भी वहीँ है,
जहाँ कल थी,
बस मै ही,
कदमों संग ,
कुछ आगे निकल आया हूँ