बुधवार, 14 सितंबर 2011

साँस, रिश्ते, एहसास

साँसे
भले ही तोड़ सकती है,
रिश्तों को
कांच के मानिंद,
मगर ,
वक्त लगता है,
सदियों को ,
एहसासों को मिटाने में

मंगलवार, 13 सितंबर 2011

खटास


बीते कल में,
कोई समझा रहा था मुझे,
सिर्फ पुराने होने से ,
मजबूती नहीं आ जाती,
कई बार,
खटास है आ जाती ,
जब खमीर है जम जाती ,
रिश्तों की तह के ऊपर

“ जिंदगी ”

मै और तुम,
मै और तुम , में उलझे रहे,
हम हो न सके,
और जिंदगी बीत गयी  ,
अजनबियों की तरह  

सोमवार, 5 सितंबर 2011

तेरी मेरी प्रीत कान्हा


तेरी मेरी प्रीत कान्हा,
तेरा मेरा ये बंधन,
जलती है गोपियाँ मुझसे,
जलता है ये वृन्दावन,

तुम्ही कहो कान्हा ,
कैसे मै इनको समझा
ऊं ,
तू तो है सबका कान्हा,
ये मै किस को बतलाऊं,

मैया यशोदा भी अब, जलने लगी है,
कहती है मुझको बावली , लड़ने लगी है,
कैसे मिलू तुमसे अब मै कान्हा,
तेरे मेरे मिलने की मुश्किलें बड़ी हैं

तुम्ही सुझाओ कान्हा,
कैसे मिलूं मै तुमसे ,
कैसे सुनू मै बंसी की धुन,
कैसे करूँ मै प्राणों को वश में,

कान्हा आज मन ये बहुत ही उदास है,
तेरी मूरत की कान्हा, नयनो को प्यास है,
कान्हा अब भी जाओ, 
राधिका ये पुकारे
तेरी याद मे कान्हा, 
घड़ी घड़ी द्वार निहारे 

तेरे चरणों में कान्हा मेरा ये जीवन
आज मेरे तन मन का तुझको समर्पण
अब चुभने लगी हैं ये गलियाँ और ये वन 
जलती है गोपियाँ मुझसे,
जलता है ये वृन्दावन,

तेरी मेरी प्रीत कान्हा,
तेरा मेरा ये बंधन,
जलती है गोपियाँ मुझसे,
जलता है ये वृन्दावन,

रविवार, 4 सितंबर 2011

मील के पत्थर -- भाग -१

तुमने देखा तो होगा,
मील के पत्थरों को,
दूरियों को बांटते हुए,
चुपचाप से पड़े रहते है,
रास्तों पर ,
हर मौसम में,

अपनी जगह भी टिके रहना,
परियों के जादू से कम नहीं,
जबकि हर कोई,
मिटा देना चाहता है,
भेद-भावों को,
मिटा कर सख्सियत ,
और मिटाकर उसको,
कहना अपना,
इंसानी फितरत से कम नहीं,

मगर कुछ ही ,
बन पाते है,
मील के पत्थर,
समय की सड़कों पर ,
जो बाँट देते है,
जीवन को,
यादों से,
और समय की पगडंडियों पर.
मुड़कर देखने से ,
यादों की कहकशा का,
मील के पत्थर बन जाना,
परियों की कहानी सा है,
जैसी बचपन में सुनी थी,
दादी या नानी से,
और आज वो ,
मील के एक पत्थर सी ,
जीवन के सफर में,
जो अपने साथ लिए,
यादों के झुरमुट,
आज भी वहीँ है,
जहाँ कल थी,
बस मै ही,
कदमों संग ,
कुछ आगे निकल आया हूँ

शनिवार, 3 सितंबर 2011

सम्पूर्णता

मै शोक में मांगल्य सा ,
हर्ष में क्रोध सा ,
पंथ में नेपथ्य सा ,
मृत्यु का प्रेमी हूँ

मृत्यु ,
सम्पूर्णता के द्वार तक,
अर्धांगिनी हो तुम,
जीवन
हमेशा छलता रहा,
रिश्तों की तरह,
धूल से सने  ,
कपड़ों के चीथड़ों की तरह ,
देह तो ढगी है,
किन्तु हँसी का पात्र बनाकर,

मै नहीं मांगता ,
जीवन से सम्पूर्णता ,
अधूरापन उजला है,
निर्मल है,
कोमल है,
चंचल है,
तो कभी शांत है,
लेकिन
बेहतर है हर परिस्तिथि में,
उधार की रज रंजित सम्पूर्णता से

जीवन,
तुम समय के आधीन हो,
फिर भी ,
तुम्हे गर्व है,
अपनी सुंदरता पर,
किन्तु ये भ्रम है,
तुम्हारा,
तुम भी मेरी देह से हो,
समय की चाक पर,
तुम्हारे चेहरे पर भी झुर्रियाँ उकेंरी जायेंगी,
तब शायद,
सम्पूर्णता के मायने भी बदल जायेंगे,
और उबटन के नकाब से,
तुम फिर से किसी को छलने चलोगे


तब क्या सार्थकता रह जायेगी,
जीवन के आयामों की,
तब तुम्हे साथ लेना होगा ,
काम, क्रोध, मद ,मोह का,
जो उबटन की तरह,
तुम्हारी सौंदर्यता पे चाँद लगाएंगे

किन्तु याद रहे,
छलना उसे ही,
जो तुम से कमजोर मिले,
यदि छला किसी दुर्वाषा को,
तो श्राप की अग्नि में .
अपना ऐश्वर्य खो बैठोगी,
और मृत्यु से पहले
कोई सम्पूर्णता को पा लेगा

मृत्यु ,
तुम समय के बंधनों से
मुक्त कर,
मुझे संपूर्ण बना देती हो,
और चुन कर मुझे अपना प्रेमी,
ले चलती हो उस पार,
जहाँ विश्राम है ,
विराम है,
आनंद है ,
शोक है ,
नाद है,
अनुनाद है,
कल्पनाओं के उस जहाँ में,
तुम मेरी प्रेयसी हो,
प्रकृति हो,
प्रवृत्ति हो ,
और
मदिरा भी ,
जो मिटा देती हो मेरी थकान,
जन्म के दो आयामों के बीच का,
और करने संपूर्ण मुझे,
हर जन्म में.
करती हो स्वयंवर का खेल,
जबकि जानती हो तुम भी,
मिलन के उस क्षण को ,
जीने के लिए ही,
जीता हूँ मै एक जीवन,
पागलों की तरह,
सम्पूर्णता की मृग तृष्णा में भटकता हुआ........

अंशुमन