रविवार, 4 सितंबर 2011

मील के पत्थर -- भाग -१

तुमने देखा तो होगा,
मील के पत्थरों को,
दूरियों को बांटते हुए,
चुपचाप से पड़े रहते है,
रास्तों पर ,
हर मौसम में,

अपनी जगह भी टिके रहना,
परियों के जादू से कम नहीं,
जबकि हर कोई,
मिटा देना चाहता है,
भेद-भावों को,
मिटा कर सख्सियत ,
और मिटाकर उसको,
कहना अपना,
इंसानी फितरत से कम नहीं,

मगर कुछ ही ,
बन पाते है,
मील के पत्थर,
समय की सड़कों पर ,
जो बाँट देते है,
जीवन को,
यादों से,
और समय की पगडंडियों पर.
मुड़कर देखने से ,
यादों की कहकशा का,
मील के पत्थर बन जाना,
परियों की कहानी सा है,
जैसी बचपन में सुनी थी,
दादी या नानी से,
और आज वो ,
मील के एक पत्थर सी ,
जीवन के सफर में,
जो अपने साथ लिए,
यादों के झुरमुट,
आज भी वहीँ है,
जहाँ कल थी,
बस मै ही,
कदमों संग ,
कुछ आगे निकल आया हूँ

1 टिप्पणियाँ:

Pushpendra Vir Sahil पुष्पेन्द्र वीर साहिल ने कहा…

ye aage nikal aane ke bad bhi ... yad rakhna... yad aanaa... kyun nahin chhutataa ...
sundar abhivyakti!!

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