शुक्रवार, 15 मार्च 2013

धर्म

                 उफ्फ्फ , ये लोग भी ना..... अपनी गली में सफाई ना होने की वजह से मै खुद में झल्लाता हुआ मेन रोड की तरफ मुड़ा ही था कि, किसी के कर्कश स्वर कानों में पड़ने लगे थे, आवाज की दिशा में मुड़ कर देखा तो, एक शराबी अपने ७-८ साल के बेटे को पीट रहा था, न जाने क्या क्या गालियाँ दे रहा था, और २-३ लोग तमाशा देख रहे थे, मै मन ही मन सोच रहा था कि आज सुबह किस का मुह देखा था, और कदमों को फिर से मेन-रोड की ओर मोड़ लिया, मै अपने ख्यालों में ही था, कि अचानक किसी ने पीछे से मेरी पेन्ट खींच ली, अब तो हद्द ही हो गयी थी, अचानक हुए ऐसे हादसे के लिए मै तैयार नहीं था , अचानक हुए हमले से मेरी आँखे गुस्से से लाल हो गयी थी , मै जब तक पीछे मुड़ कर देखता , तब तक वो बच्चा , जो अभी तक अपने शराबी पिता के हाथों से पिट रहा था , अचानक मेरे पीछे आकर छुपने की कोशिश करने लगा था, उसकी सूजी हुई छोटी छोटी आँखों (काली आँखों , शायद कल रात भी पिटा होगा ) से बहते हुए आसुओं के साथ मेरा गुस्सा भी थोडा बहोत बह गया था, उसकी सहमी सी आँखे, आसुओं से भीगे गाल, और धुल से सना सर...बहती हुयी नाख़, मैले फटे से कपड़े...पहली नज़र में यही सब कुछ दिखा था मुझे उस छोटे से बच्चे में.....
              शायद मै थोडा शभ्य हूँ , साफ़ कपड़े पहनना पसंद करता हूँ , और दूसरों के मामलों ने अपनी टांग नहीं डालता हूँ, यही सब चीज़ें थी कि , पहली बार में ही मेने उसे अपने से हटा लिया था , शायद वो अतिक्रमण कर रहा था , और क्या उसके मैले कपड़े मेरे कपड़ों को और मेला नहीं कर देते , उसका सर तो देखते ,छी: कितना गन्दा हो रहा था  और नाख़....अगर कहीं उसकी बहती नाख़ मेरे कपड़ों में लग जाती तो...
               और फिर मै एक मीडियम क्लास फॅमिली से हूँ ,इन कामों के लिए मै कहाँ से ठीक था, लड़ाई –जगडा तो गरीबों और अशभ्यों का काम है , और समाज सुधार बड़े लोगों का , बुद्धिजीवी लोगों का , और मै कोई सुपर मेन थोड़ा ही हूँ , जो अपना काम छोड़कर इन पचड़ों में पडूं.....पर वो कमबख्त था कि फिर से मेरे पीछे छुपा जा रहा था, उसके कपकपाते हाथों के स्पर्श से ना जाने मुझे क्या हुआ... मस्तिष्क शून्य सा लगने लगा था. अचानक मेरे हाथ उसके सर पर पहुच गए , और एक दो थपकी देते देते मै उसकी आँखों को पड़ने की कोशिश करने लगा , जब तक मै कुछ समझ पाता , तब तक उसके पिता मेरे सामने खड़े थे , और वो मेरे पीछे , जब तक मै कुछ कहता उसके पिता ने मुझे जाने का इशारा कर दिया , और लड़का मुझे छोड़ने को तैयार नहीं...कैसी अजीब सी होती है ऐसी हालत....मेरे कुछ कहने से पहले ही उसके पिता बोल पड़े, “बाबू जी आप ज़रा हट जाइये , साला हरामी कैसा छुपा बेठा है आपके पीछे.... “ शब्दों के साथ साथ शराब की तेज बदबू ने मेरा गुस्सा फिर से बड़ा दिया था..
               मेरे पूछने पर वो बोला , किसी काम का नहीं है  बाबू ये, कुत्ते के पिल्लों की तरह यहाँ वहां आवारा घूमता रहता है , मैने जोर देकर अपनी बात दुहरायी तो पता चला कि वो छोटा सा बच्चा स्कूल जाना चाहता था  और उसका बाप उसे काम पर भेजना चाहता था .. मेरा गुस्सा और बड गया था.. इतना छोटा सा बच्चा ... जिसकी अभी खेलने कूदने की उम्र थी , अचानक से काम के बोझ के तले कुचला जा रहा था , मेरे समझाने पर बोला , बाबू जी हमारे यहाँ तो ऐसा ही होता है , मेरे बाप ने मुझे भी ७-८ साल में काम पर भेजना शुरू  कर दिया था , और क्या कर लेगा ये स्कूल जा के , पढ़-लिख लेगा तो कल को काम करने में नखरे दिखाने  लगेगा...आप जाओ बाबू ..अपना काम करो... और अभी से काम कर लेगा तो कौन सा अधर्म हो जायेगा..और अगर काम कर लेगा तो अपने माँ बाप की सेवा कर के थोडा धर्म कर लेगा...
               पता नहीं किस समाजवाद के कीड़े ने उड़ते उड़ते मुझे काट डाला था... मैने उसके पिता को झल्लाते हुए हटाया और बच्चे को अपने साथ चलने का इशारा दिया , कुछ दूर चलने के बाद अपनी जेब से २०- २० के दो पुराने से नोट निकाले और उन्हें उसकी मुठ्ठी में रखने के बाद बोला , कुछ खा लेना और स्कूल जाने की जिद मत छोड़ना.....और फिर अपने काम के लिए निकल गया.. और काम की व्यस्तता के कारण, वो बच्चा मेरे मस्तिष्क से निकल गया....आखिर अपनी जिन्दगी से फुर्सत मिले तो किसी के किये सोचें ना..
        और फिर एक सुबह काम पर जाते हुए देखा कि सड़क के बायीं और लोगों का जमावड़ा लगा था...किसी की आवाज से पता चला किसी छोटे बच्चे की लाश है...मुझे अचानक से उस बच्चे की याद आ गयी , अनायास ही मेरे कदम उस ओर बड चले, लोगों को हटाकर देखा तो मेरे कदम कापने लगे थे , ये तो वही था.... मेरे आँखों के आगे वही सब घूमने लगा था , इतने में कान में एक आवाज पड़ी कि , अगर अपने बाप की बात मान ली होती तो आज जिन्दा होता...शायद मै ही कहीं न कहीं उसका कसूरवार बना बैठा था .......


“ शायद परम्परायें जीवन के हर मोड़ पर भारी पड़ती है...और कभी कभी जहर से भी ज्यादा खतरनाक बन जाती है....और परम्पराओं को पालने वाला धर्म , किसी भी नशे से ज्यादा घातक...अगर उपरोक्त घटना को  पिता ( धर्म )  और पुत्र ( समाज / व्यक्ति ) के संदर्भ में देंखे  तो चीज़ें और भी ज्यादा साफ़ हो जाती है... पिता का बाजारवादी होना हमेशा घातक रहा है .....कोई भी धर्म अपने विवेक का उपयोग करने की अनुमति नहीं....परम्पराएँ या तो आयातित है या फिर स्वार्थ निर्मित , ऐसे में, मै  कैसे किसी भी धर्म को अपना कह दूँ ”





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