शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

एक नजर

वो  अपनी  हद  को  सरहदों  से  गिराये जायेंगे   ,
आँखों  में  भी  आंसू  किसी  और  के  लगाये जायेंगे ,

हो हरारत  ऐसी  की , खुद  को तुझ  से बदल  लूं  मै ,
 जो  बेहया हो  ,वो क्या  तेष -ए-शरारत  दिखायेंगे  

वो  खुद  को मान  के  बुलंद  हम से, जिये जा  रहे  है भ्रम  में ,
हुज़ूर भ्रम शीसा ,हम पत्थर ,टकरायेंगे  तो चटख  जायेंगे 

जी  रहे हो गुरूर  में ,हमने  कब  कहा  गलत  है तुम्हारा  जीना   
खुद को तो बचा  भी ली  जे ,गुरूर के पहरेदार  कहाँ  से लायेंगे 

मेरा  मांझी  ही  मुझे  रोकता   है  सच  बोलने  से ,
डरता  है उनसे खता कर के हम किधर जायेंगे,

सुकून  से  तो  कब्र  पे   भी  सो  जाऊ  मै  ,
जो  हंगामा     बरपयाएं  तो क्या  ख़ाक  जिए  जायेंगे ,

सोचता  हूँ  बदल  दूँ  मै  तुझको –-अहले  सियासत ,
कितने  है  छेद , कितने  पैबंद  हम  लगायेंगे   ,


हाँ  ये  सच  है की , सच  ही  लिखा  है ,सच ही लिखे  जायेंगे ,
थोडा  तकलुफ्फ़  कर  लो ,हुज़ूर बदल जाओ ,वरना  इससे  कड़वी  तासीर  में नजर  आयेंगे 

अंशुमन 

*हद & सरहद - be-emani, kamchori ....etc

आवारा परिंदा

स्वप्न ,
दिवा -स्वप्नों  से  जग  कर ,
नव - उमंग  , 
यौवन  से  सज  कर ,
जब  भी  मैने  पंख  फैलाये ,
आकाश  को  सिमटा   ही  पाया ,

मै,
एक  आवारा  परिंदा ,
चाहा  था ,
केवल  एक  खुला  आकाश ,
कि  फैला  के  पंख  अपने  ,
नाप  लूं ,
जीवन  की  सार्थकता ,
नापने   से  उचाईयों  को ,
जो  मुझे  और  तुम्हे  खीचती  है ,
अपनी  और ,
  जाने  कब  से ,

मगर  चाहतें 
सिर्फ  चिढाती  है  , 
मुह  खोल  के ,
खोखली  होती  है
सिर्फ  स्वप्नों  की  तरह ,
क्योंकि ,
उड़ने  के  लिए  ,
आसमान  सिमट  जाता  है ,

आसमान  सिमट  जाता  है ,
क्यूँकि  
मेरी  उडान    कुछ   ऊँची  है ,
जो  आस्मां  के  ठेकेदारों  को ,
पसंद  नही  आती ,
उड़ने  के  लिए  भी ,
मुझे  उनको  ताकना  पड़ता  है ..

मगर  हसरतें  ,
और  ख्वाब ,
जो    कराएँ  वो  कम  है ,
और नोच  लिए  जाते   है 
पंख  मेरे ,
क्योंकि
मै  आवारा  हूँ ,
चाहतें खुली थी ,
और  उड़ाने  ऊँची  ...
मगर  फिर  भी ,
हौसले  बाकी  है ,
क्योंकि ,
मै  एक  आवारा  परिंदा  हूँ

शनिवार, 16 जुलाई 2011

मौन

तुम्हारा  मौन ही  रहना ,
यूं  तो झंझोर देता है मुझे,
मगर बेबस हूँ
तुम्हारी  सन्नाहट के आगे,
कुछ कर नहीं  सकता ,
पिघल जाता  हूँ खुद  ही 
झुंझलाहट  में ,
जैसे  हिम पिघल जाता है  ,
जून  के  दिन  में,


क्यों  बबूल  की जैसी   ,
ओड़   रखी  है हसीं  तुमने ,
कि उलझ जाते  हो  बार -बार,
खुशियों के काटों में,
कि  खुशियाँ  ही दर्द  देने  लगती  है,


फिर भी
अपनी आग- आवाज को दबाये बेठे हो,
रोटी की चंद कतरनों  से ,
या फिर आंसू इतने घुल गए है लहू में,
कि नमक का फ़र्ज़ अदा कर रहे हो,


तुम्हारा मौन रहना ही,
कचोटता  है मुझे और तुम्हे,
जानते हो तुम भी,
फिर भी बर्फ सी  ठंडक नहीं जाती
तुम्हारे लहू से....

और क्या यही विरासत में दोगे  ?
अपने आने वालों को ,
या फिर छीन लोगे,
उनके लिए वो सब,
जिसके वो उत्तराधिकारी हैं,

और तज दोगे ये मौन,
जो तुम्हे बर्फ सा  जमाये  रखता  है,
क्यों कि अपनों के बीच में
अपनों के लिए हसना, लड़ना, गिरना , उठाना पड़ता है 


अंशुमन