शनिवार, 3 सितंबर 2011

सम्पूर्णता

मै शोक में मांगल्य सा ,
हर्ष में क्रोध सा ,
पंथ में नेपथ्य सा ,
मृत्यु का प्रेमी हूँ

मृत्यु ,
सम्पूर्णता के द्वार तक,
अर्धांगिनी हो तुम,
जीवन
हमेशा छलता रहा,
रिश्तों की तरह,
धूल से सने  ,
कपड़ों के चीथड़ों की तरह ,
देह तो ढगी है,
किन्तु हँसी का पात्र बनाकर,

मै नहीं मांगता ,
जीवन से सम्पूर्णता ,
अधूरापन उजला है,
निर्मल है,
कोमल है,
चंचल है,
तो कभी शांत है,
लेकिन
बेहतर है हर परिस्तिथि में,
उधार की रज रंजित सम्पूर्णता से

जीवन,
तुम समय के आधीन हो,
फिर भी ,
तुम्हे गर्व है,
अपनी सुंदरता पर,
किन्तु ये भ्रम है,
तुम्हारा,
तुम भी मेरी देह से हो,
समय की चाक पर,
तुम्हारे चेहरे पर भी झुर्रियाँ उकेंरी जायेंगी,
तब शायद,
सम्पूर्णता के मायने भी बदल जायेंगे,
और उबटन के नकाब से,
तुम फिर से किसी को छलने चलोगे


तब क्या सार्थकता रह जायेगी,
जीवन के आयामों की,
तब तुम्हे साथ लेना होगा ,
काम, क्रोध, मद ,मोह का,
जो उबटन की तरह,
तुम्हारी सौंदर्यता पे चाँद लगाएंगे

किन्तु याद रहे,
छलना उसे ही,
जो तुम से कमजोर मिले,
यदि छला किसी दुर्वाषा को,
तो श्राप की अग्नि में .
अपना ऐश्वर्य खो बैठोगी,
और मृत्यु से पहले
कोई सम्पूर्णता को पा लेगा

मृत्यु ,
तुम समय के बंधनों से
मुक्त कर,
मुझे संपूर्ण बना देती हो,
और चुन कर मुझे अपना प्रेमी,
ले चलती हो उस पार,
जहाँ विश्राम है ,
विराम है,
आनंद है ,
शोक है ,
नाद है,
अनुनाद है,
कल्पनाओं के उस जहाँ में,
तुम मेरी प्रेयसी हो,
प्रकृति हो,
प्रवृत्ति हो ,
और
मदिरा भी ,
जो मिटा देती हो मेरी थकान,
जन्म के दो आयामों के बीच का,
और करने संपूर्ण मुझे,
हर जन्म में.
करती हो स्वयंवर का खेल,
जबकि जानती हो तुम भी,
मिलन के उस क्षण को ,
जीने के लिए ही,
जीता हूँ मै एक जीवन,
पागलों की तरह,
सम्पूर्णता की मृग तृष्णा में भटकता हुआ........

अंशुमन


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