संभावनाओ के प्रांगण में,
नक्षत्रों की गोद में,
नियति,
खेलती हो जब धूप छांव में,
अस्तित्व बनते मिटते रहते है,
संवेदनाएं,
प्रतिबिम्ब बन जाएँ जब,
मौलिकता आधार बने,
तब, कर्मो के इस भव सागर में,
अस्तित्व बनते मिटते रहते है,
संभावनाओं को कृतज्ञ बना कर,
जब भरत भाग्य से आखेट करे,
सिंह आरूढ हो, विजय नाद लहराए,
अस्तित्व बनते मिटते रहते है,
चिंताओं से परे अक्षांश पर,
अनुभूतियाँ जहाँ परखे स्वार्थ को,
रक्त वर्णित परशु, युद्ध करे जब,
अस्तित्व बनते मिटते रहते है,
गुरु में सूरत मिले ब्रह्म की ,
शिष्य एकलव्य सा हो जहाँ,
प्रेम-कर्म से लुट बेठे कोई पन्ना
अस्तित्व बनते मिटते रहते है,
2 टिप्पणियाँ:
very nice tarun...
well done!
बहुत खूबसूरत कविता...
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