ये रंग रंगों से अलग सा क्यूँ है,
आँखों में तैरता रंग लहू सा क्यूँ है
एक शाम भोली सी गाँव जैसी पूछे है ,
सहर तेरे हिस्से में शहर सा क्यूँ है
शराफत के नये चेहरे अमीरी में नजर आये,
नक्श ए गुनहगारी गरीबी तेरा पहलू सा क्यूँ है
जरा मुडकर देखूं तो मोहब्बत के वो मंदिर थे,
पूछलूं उनसे दुवाओं में असर बम सा क्यूँ है
दुवाओं के बटवारे में मेरा हिस्सा नहीं होता ,
“अंश” मजहब तेरा ढोंग से अलग सा क्यूँ है
3 टिप्पणियाँ:
दुवाओं के बटवारे में मेरा हिस्सा नहीं होता ,
“अंश” मजहब तेरा ढोंग से अलग सा क्यूँ है
bahut sundar
acha likha hai aap ne
बहुतद सुन्दर प्रस्तुति!
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