मैं एक रूप हूँ तुम जैसा ही,
तुम जैसी ही बातें करता हूँ,
भले उठा लो प्रश्न-चिन्ह मेरे अस्तित्व पर,
पर मानते तुम भी यही हो,
मैं चलते चलते गिर पड़ता हूँ ,
इस लिए नहीं की आँखे मूंदी हो मैने,
वरन कुछ अपनों को आगे निकलना है मुझसे,
जीवन की इन तपती राहों पर,
मन को शांत लिए फिरता हूँ,
के उम्मीदें मुझे भड़का देती है,
कुछ करने की कोशिश में,
कर्मो से मुरझा जाऊ ना मैं,
अपने आवेगों से हारकर,
तुम्हे जीतने का प्रबल दंभ भरूं,
हूँ मै अपने पुरखो जैसा,
फिर उनसे कैसे अलग रहूँ,
उपदेश बहुत मिलते है मुझको,
खोजता हूँ मै पथ-प्रदर्शक,
शंख-नाद फूंक दे जो जीवन में,
क्रोध - मोह से मुझे विरक्त करे,
इसी खोज में निकला हूँ मैं,
चेतनता का एक मान रखूं,
मैं एक रूप हूँ तुम जैसा ही,
आज इसे असत्य कर दूं,
अंशुमन
तुम जैसी ही बातें करता हूँ,
भले उठा लो प्रश्न-चिन्ह मेरे अस्तित्व पर,
पर मानते तुम भी यही हो,
मैं चलते चलते गिर पड़ता हूँ ,
इस लिए नहीं की आँखे मूंदी हो मैने,
वरन कुछ अपनों को आगे निकलना है मुझसे,
जीवन की इन तपती राहों पर,
मन को शांत लिए फिरता हूँ,
के उम्मीदें मुझे भड़का देती है,
कुछ करने की कोशिश में,
कर्मो से मुरझा जाऊ ना मैं,
अपने आवेगों से हारकर,
तुम्हे जीतने का प्रबल दंभ भरूं,
हूँ मै अपने पुरखो जैसा,
फिर उनसे कैसे अलग रहूँ,
उपदेश बहुत मिलते है मुझको,
खोजता हूँ मै पथ-प्रदर्शक,
शंख-नाद फूंक दे जो जीवन में,
क्रोध - मोह से मुझे विरक्त करे,
इसी खोज में निकला हूँ मैं,
चेतनता का एक मान रखूं,
मैं एक रूप हूँ तुम जैसा ही,
आज इसे असत्य कर दूं,
अंशुमन
2 टिप्पणियाँ:
बहुत सुन्दर संरचना
खुद को परिभाषित करती कविता
बहुत ख़ूबसूरती से लिखी है ये कविता...बहुत खूब तरुण.
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