गुरुवार, 26 मई 2011

प्रतिहार


हार के प्रतिहार में ,
कई  दंश है ,
एक  ख़ुशी  भी  है ,
जो  उठ  चली  थी  क्रांति  वो ,
अब  फिर   से  घर की  ओर  है ,

लकीरों  के  खेल  से  परे ,
अंगारों  का  एक  अपना  रूप  है ,
जो  जल  गया  है  उसे  जलने  दो ,
बदलने  का  अब  ये  फेर  है ,

सांस , जीवन  का  श्रींगार  तज  दो ,
बन्धनों  का  अपमान  कर  लो ,
जो  जल  रही  है  आग  मन  में ,
आज  उसका  अभिमान  रख  लो ,

नेत्र , 
देह  का  त्याग  कर  लो ,
जो  दिखा  रहे  है  मुझको  पंथ  ,
आज  उनसे  बात  कर  लो ,

हस्त  , तुम  खामोश  थे  अब  तक ,
जब  जल  रहे  थे  शहर  में  घर ,
अब  उठो , जीवित  हो  या  मरो ,
क्रांति  आ  रही  है  घर  की  ओर ,

देह , मन  का  साथ  दे  दो ,
पद  से पद  मिलाना  है ,
जो  निचोड़  रहे  है  मुझे  रूह  तक ,
अब  उन  पर  प्रतिहार  करना  है 

हार के प्रतिहार में ,
कई  दंश है ,
एक  ख़ुशी  भी  है ,
जो  उठ  चली  थी  क्रांति  वो ,
अब  फिर   से  घर की  ओर  है ,

अंशुमन 
२६-०५-२०११

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