हार के प्रतिहार में ,
कई दंश है ,
एक ख़ुशी भी है ,
जो उठ चली थी क्रांति वो ,
अब फिर से घर की ओर है ,
लकीरों के खेल से परे ,
अंगारों का एक अपना रूप है ,
जो जल गया है उसे जलने दो ,
बदलने का अब ये फेर है ,
सांस , जीवन का श्रींगार तज दो ,
बन्धनों का अपमान कर लो ,
जो जल रही है आग मन में ,
आज उसका अभिमान रख लो ,
नेत्र ,
देह का त्याग कर लो ,
जो दिखा रहे है मुझको पंथ ,
आज उनसे बात कर लो ,
हस्त , तुम खामोश थे अब तक ,
जब जल रहे थे शहर में घर ,
अब उठो , जीवित हो या मरो ,
क्रांति आ रही है घर की ओर ,
देह , मन का साथ दे दो ,
पद से पद मिलाना है ,
जो निचोड़ रहे है मुझे रूह तक ,
अब उन पर प्रतिहार करना है
हार के प्रतिहार में ,
कई दंश है ,
एक ख़ुशी भी है ,
जो उठ चली थी क्रांति वो ,
अब फिर से घर की ओर है ,
अंशुमन
२६-०५-२०११
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