शनिवार, 16 जुलाई 2011

मौन

तुम्हारा  मौन ही  रहना ,
यूं  तो झंझोर देता है मुझे,
मगर बेबस हूँ
तुम्हारी  सन्नाहट के आगे,
कुछ कर नहीं  सकता ,
पिघल जाता  हूँ खुद  ही 
झुंझलाहट  में ,
जैसे  हिम पिघल जाता है  ,
जून  के  दिन  में,


क्यों  बबूल  की जैसी   ,
ओड़   रखी  है हसीं  तुमने ,
कि उलझ जाते  हो  बार -बार,
खुशियों के काटों में,
कि  खुशियाँ  ही दर्द  देने  लगती  है,


फिर भी
अपनी आग- आवाज को दबाये बेठे हो,
रोटी की चंद कतरनों  से ,
या फिर आंसू इतने घुल गए है लहू में,
कि नमक का फ़र्ज़ अदा कर रहे हो,


तुम्हारा मौन रहना ही,
कचोटता  है मुझे और तुम्हे,
जानते हो तुम भी,
फिर भी बर्फ सी  ठंडक नहीं जाती
तुम्हारे लहू से....

और क्या यही विरासत में दोगे  ?
अपने आने वालों को ,
या फिर छीन लोगे,
उनके लिए वो सब,
जिसके वो उत्तराधिकारी हैं,

और तज दोगे ये मौन,
जो तुम्हे बर्फ सा  जमाये  रखता  है,
क्यों कि अपनों के बीच में
अपनों के लिए हसना, लड़ना, गिरना , उठाना पड़ता है 


अंशुमन 



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