शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

आवारा परिंदा

स्वप्न ,
दिवा -स्वप्नों  से  जग  कर ,
नव - उमंग  , 
यौवन  से  सज  कर ,
जब  भी  मैने  पंख  फैलाये ,
आकाश  को  सिमटा   ही  पाया ,

मै,
एक  आवारा  परिंदा ,
चाहा  था ,
केवल  एक  खुला  आकाश ,
कि  फैला  के  पंख  अपने  ,
नाप  लूं ,
जीवन  की  सार्थकता ,
नापने   से  उचाईयों  को ,
जो  मुझे  और  तुम्हे  खीचती  है ,
अपनी  और ,
  जाने  कब  से ,

मगर  चाहतें 
सिर्फ  चिढाती  है  , 
मुह  खोल  के ,
खोखली  होती  है
सिर्फ  स्वप्नों  की  तरह ,
क्योंकि ,
उड़ने  के  लिए  ,
आसमान  सिमट  जाता  है ,

आसमान  सिमट  जाता  है ,
क्यूँकि  
मेरी  उडान    कुछ   ऊँची  है ,
जो  आस्मां  के  ठेकेदारों  को ,
पसंद  नही  आती ,
उड़ने  के  लिए  भी ,
मुझे  उनको  ताकना  पड़ता  है ..

मगर  हसरतें  ,
और  ख्वाब ,
जो    कराएँ  वो  कम  है ,
और नोच  लिए  जाते   है 
पंख  मेरे ,
क्योंकि
मै  आवारा  हूँ ,
चाहतें खुली थी ,
और  उड़ाने  ऊँची  ...
मगर  फिर  भी ,
हौसले  बाकी  है ,
क्योंकि ,
मै  एक  आवारा  परिंदा  हूँ

5 टिप्पणियाँ:

Pushpendra Vir Sahil पुष्पेन्द्र वीर साहिल ने कहा…

nayee soch... prabhavee prastuti...!!

UrbanMonk ने कहा…

hosala afjai ke liye dhanyawaad .....

vidya ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
vidya ने कहा…

बहुत गंभीर सोच और खूबसूरत अभिव्यक्ति...

बेनामी ने कहा…

बहोत अच्छा लगा पढकर

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