स्वप्न ,
दिवा -स्वप्नों से जग कर ,
नव - उमंग ,
यौवन से सज कर ,
जब भी मैने पंख फैलाये ,
आकाश को सिमटा ही पाया ,
मै,
एक आवारा परिंदा ,
चाहा था ,
केवल एक खुला आकाश ,
कि फैला के पंख अपने ,
नाप लूं ,
जीवन की सार्थकता ,
नापने से उचाईयों को ,
जो मुझे और तुम्हे खीचती है ,
अपनी और ,
न जाने कब से ,
मगर चाहतें
सिर्फ चिढाती है ,
मुह खोल के ,
खोखली होती है ,
सिर्फ स्वप्नों की तरह ,
क्योंकि ,
उड़ने के लिए ,
आसमान सिमट जाता है ,
आसमान सिमट जाता है ,
क्यूँकि
मेरी उडान कुछ ऊँची है ,
जो आस्मां के ठेकेदारों को ,
पसंद नही आती ,
उड़ने के लिए भी ,
मुझे उनको ताकना पड़ता है ..
मगर हसरतें ,
और ख्वाब ,
जो न कराएँ वो कम है ,
और नोच लिए जाते है
पंख मेरे ,
क्योंकि ,
मै आवारा हूँ ,
चाहतें खुली थी ,
और उड़ाने ऊँची ...
मगर फिर भी ,
हौसले बाकी है ,
क्योंकि ,
मै एक आवारा परिंदा हूँ
5 टिप्पणियाँ:
nayee soch... prabhavee prastuti...!!
hosala afjai ke liye dhanyawaad .....
बहुत गंभीर सोच और खूबसूरत अभिव्यक्ति...
बहोत अच्छा लगा पढकर
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